8/29/2014

गणराया

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8/12/2014

आज की बात

दौरा दौड़-दौड़कर दौरा नहीं देती।
वह तो एक शै है जो मचल जाया करती है।।

जो खुद खुदा है उसके लिए अलग से खुदा क्या लाऊँ।
यह सोचते ही हम सिमटकर रह गए।।

आपकी डांट को पाबंद की कूवत हमें कहाँ।
आप ही अपना चमन बसा लो या बाहर कर डालो।।

क्या-क्या मुरादें पालता है नामुराद-ए-दिल मेरा।
अफ़सोस कि नादान दिल अपने असबाब से ही बेखबर।।

8/09/2014

रक्षा-बंधन के अवसर पर

ऐ बहना तेरे भाई की,
कितनी करतूत निराली है।
होश नहीं है रिश्तों की,
कैसी वहशीपन छाई है।।

आड़ सदा ले रिश्तों की,
हरबार कलंक उठाई है।
गली-मोहल्ले की मिठास को,
उसने कितनी कडवा की है।।

कहाँ हुमायूं-कर्णावती की,
लोग मिसालें देते थे
आज सगी बहनों की अस्मत,
भाई सगा दागित की है।।

ठहरो, सुधरो, हुल्लड़बाजों,
ये कसी नादानी है।
माँ-बहनों से ही जगती यह,
सुन्दर-सजल निशानी है।।

8/08/2014

मन मस्त हुआ तब कौन बोले!

मनुष्य जब पूर्णतया अपने भीतर स्थित हो जाता है तो वह कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं रह जाता। धीरे-धीरे वह दुनिया के लिए अजनबी बन जाता है। शुरू-शुरू में तो यह बात उसे खुद भी अखरती है, पर समय के साथ वह इसका अभ्यस्त हो जाता है। सबसे बड़ी बात यह कि चाहत खत्म हो जाती है। बस वह वह हो जाता है।